https://www.makeinmeezon.com/2020/01/blog-post_23.html
 विनोबा भावे



               "मैं गंगा और यमुना पार कर चूका, अब चम्बल पार की है। ये नदियाँ जन-जन के लिए ऐक्य और सुख का सन्देश पहुंचानेवाली है। मेरी अभिलाषा है कि मेरी यात्रा भी इन नदियों की धारा के समान ही सुखप्रद हो।"
                जब विनोबा भावेजी मध्यप्रदेश के डाकूग्रस्त क्षेत्र में प्रवेश किया था, उस अवसर पर उन्होंने यह भाव व्यक्त किये थे। मराठी भाषी विनोबाजी का हिन्दी से सम्बन्ध उनके सार्वजनिक जीवन से भी अधिक पुराना है। गांधीजी के अनुयायी और गाँधी विचारधारा के कटटर समर्थक के रूप उन्हें हिन्दी-प्रेम उसी परंपरा से प्राप्त हुआ। संस्कृत के प्रति उनका अनुराग बाल्यावस्था में ही हो गया था। विनोबाजी की विचारधारा और प्रशिक्षण साहित्य के अनुरूप थे। संस्कृत से अन्य भारतीय भाषाओँ विशेषकर हिन्दी तक पहुँचने में उन्हें देर नहीं लगी। फिर गांधीजी के निकट संपर्क ने और उनके विचारों के प्रभाव ने विनोबाजी की नैसर्गिक प्रवृतियों को अधिक दृढ़ बना दिया। इसी कारण वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानकर अधिकतर उसीमे बोलतें और लिखते रहे है।

              आचार्य विनोबा भावेजी बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे। उनका प्रिय विषय गणित था। उन्हें अध्यात्म चेतना और कविता के संस्कार अपनी माता रुक्मणि बाई से मिलें थे। विनोबाजी का जन्म 11सितम्बर 1895को महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री। नरहरि भावे था। उनकी माता ने बचपन से ही उन्हें संसार में रहते हुए भी उससे निस्पृह निर्लिप्त रहना सिखाया था।

             विनोबा भावेजी ने सं। 1915 में हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी। उनके पिता वैज्ञानिक प्रवृति के थे वहीं उनकी माताजी अध्यात्म में डूबी रहनेवाली। उन माता-पिता का वैचारिक द्वन्द था। पिता चाहते थे की विनोबा फ्रेंच पढ़े और माता का कहना था कि " ब्राह्मण का बेटा संस्कृत न पढ़े, यह कैसे संभव होगा। अपने माता-पिता का सम्मान करते हुए विनोबाजी दोनों का मन रखते हुए इंटर में फ्रेंच को चुना और निजी स्तर पर संस्कृत का अध्ययन जारी रखा।

             उन दिनों ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में हो रही क्रांति की भाषा फ्रेंच ही थी। बहुत सारा परिवर्तन कामी साहित्य फ्रैंच में ही रचा गया था। वहीं बड़ोदा का पुस्तकालय दुर्लभ पुस्तकों, पांडुलिपियों के खजाने के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध था।

             विनोबाजी ने इसी पुस्तकालय को अपना ठिकाना बना दिया, जैसे ही उन्हें विद्यालय से छुट्टी मिलती वे पुस्तकालय में जाकर उन पुस्तकों में खो जाते। उन पुस्तकों के साहित्य ने विनोबाजी का परिचय पश्चिमी देशों में हो रही वैचारिक क्रांति से कराया। इसी वजह से उन्हें वेदों और उपनिषदों में गहराई से पैठने की योग्यता दी।

             जब विनोबाजी इंटर की पढाई कर रहे थे तो उन्हें परीक्षा देने 25 मार्च 1916 को मुंबई जाना पड़ा था। अपने अध्ययन के पश्चात 7 जून 1916 को विनोबाजी ने पहली बार महात्मा गाँधी से भेंट की थी। यहीं से विनोबाजी गाँधी के ही होकर रह गए. गांधीजी ने उनकी भेंट पर टिपण्णी की थी-"अधिकांश लोग यहाँ से कुछ लेने के लिए आते है, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है।"

             विनोबाजी ने स्वयं को गांधीजी के आश्रम के लिए समर्पित कर दिया अध्ययन, अध्यापन, कताई खेती के काम से लेकर सामुदायिक जीवन तक आश्रम की हर गतिविधि में वे आगे रहते। इसपर गाँधी कहते थे की यह युवक आश्रमवासियों से कुछ लेने नहीं बल्कि देने आया है। 
                  द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यूनाइटेड किंगडम द्वारा भारत देश को जबरन युद्ध में झोंका जा रहा था , जिसके विरुद्ध एक व्यक्तिगत सत्याग्रह 17 अक्टूबर 1940 को शुरू किया गया था। इस सत्याग्रहके लिए उन्हें बंदी भी बनाया गया था।  इसके आलावा उन्हें  3 वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड भी दिया गया था। 

 सर्वोदय आंदोलन:-

                   सर्वोदय भारत का पुराना आदर्श है। हमारे कृषियों ने गाया है-"सर्वपि सुखिनः सन्तु।" सर्वोदय शब्द नया नहीं है। यही गांधीजी के कल्पनाओं का समाज था, जिसके केंद्र में भारतीय ग्राम व्यवस्था थी।

                 इसी कल्पना को साकार करने विनोबाजी ने अपनी पदयात्राएँ करते हुए गांव-गांव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानो के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करने लगे। उस समय उन्होंने पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा था। जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था।

               18 अप्रैल 1951 को जब आचार्य विनोबाजी को तेलंगाना क्षेत्र स्थित पोच्चमपल्ली गांव में जमीन का पहला दान मिला और यहीं से विनोबाजी के भूदान आंदोलन का आरम्भ हो गया। इस आंदोलन से प्रभावित होकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता श्री. जयप्रकाश नारायण सं.1953 से आंदोलन में शामिल हो गए.

               विनोबाजी ने आंदोलन के शुरवाती दिनों में तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की यात्रा की थी और उन्हें दान में 12, 200 एकड़ भूमि भी दान में मिली थी। इसके बाद यह आंदोलन उत्तर भारत में फैला। बिहार तथा उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का गहरा असर देखा गया था। 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान में मिल चुकी थी।

                15 नवम्बर 1982 में वर्धा गांव में ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं भूदान आंदोलन के जनक आचार्य विनोबाजी ने अपनी आँखें हमेशा-हमेशा के लिए मूंद ली।