सुभाष चंद्र बोस की कांग्रेस के साथ दरार क्यों ?

                                                                                          
                                                                                         
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सुभाष चंद्र बोस


"यह काम बड़ा दूरदर्शितापूर्ण है और इसका परिणाम बहुत दूर आगे चलकर मिलेगा। प्रांतीय ईर्ष्याद्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिये, उसमे कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसीकी बाधा को सहन ही नहीं कर सकते है। पर सारे प्रांतो की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिंदुस्तानी को ही मिला। नेहरू रिपोर्ट में भी इसीकी सिफारिश की गई है। यदि हम लोगों ने तन-मन-धन से प्रयत्न किया तो वह दिन दूर नहीं है, जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिंदी।" अपने यह विचार सं.1929 में गान्धीजी के सभापतित्व में आयोजित राष्ट्रभाषा-सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष श्री. सुभाषचन्द्र बोसजी ने अपने भाषण के दौरान व्यक्त किए थे। अपितु हिन्दी कि ही उन्हे चिन्ता नहीं थी बल्कि भारत की भी उन्हे चिन्ता थी। श्री. सुभाषचन्द्रजी का जन्म ओडीशा के कटक शहर में एक हिन्दू कायस्थ परिवार में 23 जनवरी 1897 को हुआ था। उनके पिता श्री. जानकीनाथ बोस कटक शहर के प्रसिद्ध वकील थे। पहले तो वे एक सरकारी वकील थे, परंतु बाद में उन्होने अपनी निजी वकालत आरंभ कर दी थी। अपनी प्रैक्टिस के दौरन श्री. जानकीनाथ जी ने वहाँ की महापालिका में काफी समय तक कार्य किया था। इसके अलावा वे बंगाल विधानशभा के सदस्य भी रहे थे। उनके कार्य से खुश होकर अंग्रेज़ सरकार ने श्री. जानकीनाथजी को रायबहादुर का किताब प्रदान किया था। श्री.सुभाषचन्द्र जी की माताजी का नाम प्रभावती था। उनका सम्बन्ध कोलकाता के एक कुलीन परिवार से था। श्री ।जानकी नाथ जी और प्रभावती की कुल 14 संताने थी। जिनमे 6 बेटिया तथा 8 बेटे थे, जिनमे सुभाष चंद्र जी का नौवां स्थान था। श्री. सुभाषचंद्र जी ने अपनी प्रारंभिक प्रायमरी शिक्षा कटक के प्रोटेस्टैंट स्कूल से पूर्ण की थी। इसके पश्चात सं.1909 में रेवेनशा कॉलेजिएट जीवन के दौरान कॉलेज के प्रिंसिपल श्री. बेनीमाधव दासजी के व्यक्तित्व का उनके मन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में ही विवेकानंद साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। सं। 1915 में अपनी इंटरमीडिएट की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। सन 1916 में सुभाष जी जब बी. ऐ ।के दर्शनशास्त्र [HONS.] का अध्यनन कर रहे थे उस दौरान उनके प्रेसीडेंसी कॉलेज के अद्यापको तथा छात्रों के मध्य संघर्ष हो गया था। उसमें श्री सुभाष चंद्रजी ने छात्रों का नेतृत्व किया था, जिसके कारण कॉलेज प्रबंधन ने उन्हे कॉलेज से एक वर्ष के लिए उन्हें निकाल दिया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया था। यहाँ तक की उन्होंने सेना में भर्ती होने के लिए परीक्षा भी दी थी, परंतु उनकी आंखे ख़राब होने के कारण उन्हे सेना के लिए अयोग्य करार दिया गया था। श्री. सुभाषचन्द्र जी दृढ़ इच्छा थी कि वे सेना में भर्ती होंगे। किसी प्रकार से उन्होनें स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया था। मन में दबी हुई सेना में भर्ती होने की इच्छा के चलते आखिरकार उन्होने टेरिटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रंगरूट के रूप में उन्हें प्रवेश मिल गया। श्री.रविन्द्रनाथ ठाकुरजी की सलाह पर भारत आने पर श्री. सुभाषचंद्र बोस सर्वप्रथम मुंबई गये और गांधीजी से मिले। यहाँ 20 जुलाई 1921 को उन दोनों के बीच पहली मुलाकात समझी जाती है। उसी मुलाकात के दौरान श्री.सुभाषचंद्रजी की इच्छा के अनुसार गांधीजी ने उन्हे कलकत्ता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी थी। अंग्रेज सरकार के खिलाफ गांधीजी ने असहयोग आंदोलन चलाया था। इसी आंदोलन का बंगाल में दासबाबू नेतृत्व कर रहे थे। इसी आंदोलन में श्री सुभाषचंद्र जी सहभागी हुए थे सन. 1922 में कांग्रेस के अन्तरगत श्री. दासबाबू ने 'स्वराज पार्टी' की स्थापना की थी। ' स्वराज पार्टी' की स्थापना कर विधानसभा के भीतर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने हेतु महापालिका चुनाव जीत कर श्री दासबाबू कलकत्ता के महापौर बने थे। महापौर बनने के पश्चात् उन्होने सर्वप्रथम श्री. सुभाषचंद्र बोसजी को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया था। सं 1928 में श्री मोतीलाल नेहरु कि अध्यक्षता में कोलकत्ता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया गया था। श्री बोस जी ने इस अधिवेशन में पहली बार खाकी गणवेश धारण कर श्री मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी थी। गान्धीजी उन दिनो 'स्वराज्य' की मांग से सहमत नहीं थे। उन्होने अंग्रेज सरकार से डोमिनियन स्टेटस मांगने कि ठान ली थी। श्री सुभाषचन्द्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंज़ूर नहीं था। आखिरकार यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेट्स देने का एक वर्ष का समय दिया जाये। परंतु अंग्रेजों ने ये मांग पुरी नहीं की थी। जब सं.1930 में श्री। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ था तब तय किया गया था कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा। श्री. सुभाषचंद्र बोसजी को पहली बार 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ था। सन् 1938 में जब काँग्रेस का 51 वां वार्षिक अधिवेशन हरिपुर में होना तय हुआ था तब काँग्रेस अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोसजी का स्वागत 51 बैलों द्वारा खिंचे हुए रथ में किया गया था। सन। 1939 में नया काँग्रेस अधक्ष चुनने का समय आया तब सुभाषचंद्रजी चाहते थे की कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाय जो किसी दबाव के आगे बिलकुल न झुके. परन्तु गांधीजी, श्री। सुभाषचंद्रजी को अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। जबकि श्री. रविंद्रनाथ ठाकुरजी ने गांधीजी को पत्र लिखकर बोसजी को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया था। गान्धीजी ने अपनी हटधर्मिता के चलते पट्टाभी सितारामया को साथ दिया गान्धीजी को विश्वास था कि श्री.सीतारामैया आसानी से चुनाव जीत जाएंगे परन्तु उस चुनाव में श्री.सुभाषचंद्रजी को 1580 मत पड़े तो श्री.सीतारमैया को 1377 मत मिले। इस प्रकार बोसजी 203 मतों से चुनाव जीत गए। 3 मई 1939 को सुभाषजी ने फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की थी। फॉरवर्ड ब्लॉक एक स्वतंत्र पार्टी बन गई. उस दौरान द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक तेज करने के लिए जान जागृति शरू की थी। जब 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के पश्चात दुनिया ने कभी भी श्री.सुभाषचंद्रजी को नहीं देखा न ही उनके विषय में कोई जानकारी नहीं मिली।