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कन्हैयालाल मुंशी



                             गुजराती भाषा के यशस्वी उपन्यासकार श्री. कन्हैयालाल मुंशीजी की प्रतिभा का विकास उनके ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना के साथ हुआ।  उनके सं. 1916 में  प्रकाशित 'पाटन नी प्रभुता ' उपन्यास को गुजराती साहित्य में बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता है।  श्री. मुंशीजी सर्वतोमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे एक सफल उपन्यासकार , नाटककार , इतिहासकार ,लेखक , निबंधकार , शिक्षाविद , पत्रकार , राजनीतिज्ञ , वक्ता और एक ख्यातनाम वकील भी थे।  उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन का बहुत बड़ा अंश गुजरात और उसके साहित्य की सेवा में अर्पित किया है।  
                    श्री. कन्हैयालाल मुंशीजी का जन्म गुजरात के भड़ोच में सं. 1887 में एक ब्राम्हण परिवार में हुआ था।  उनके पिता श्री. माणिकलाल डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे , किन्तु सं. 1908 में अल्पायु में ही उनका स्वर्गवास हो गया था। श्री. कन्हैयालालजी की माता पर परिवार की प्रतिष्ठा बनाय रखने और बालक कन्हैयालाल तथा बालिकाओं की शिक्षा आदि का पूरा भार पड़ा था। 
                      श्री. कन्हैयालालजी को बाल्यकाल में विद्या प्राप्ति की बड़ी लगन थी।  उन्हें पौराणिक कथाओं द्वारा आरम्भिक शिक्षा दी गई थी। उन्होंने जब अंग्रेजी शिक्षा आरम्भ की तो उन पर ड्यूमा , विक्टर ह्यूगो , मेरी कोरेली तथा पश्चिम के अन्य कलाकारों की कथाओं का बड़ा प्रभाव था।  
                      अपने नासिक के कारावास जीवन में सं. 1930 में ' शिशु अने सखी ' नामक पुस्तक की रचना लगभग दस दिनों में ही की। यही पुस्तक गुजराती साहित्य में अनुपम पुस्तक मानी गई है।
                       श्री. कन्हैयालालजी ने अतीत भारत का चित्रण करने में अनेक वर्ष व्यतीत किये थे।  उनकी सबसे बड़ी पुस्तक ' परशुराम ' है।  अतीत के पुजारी होते हुए भी उन्होंने गुजरात में मध्ययुग का चित्रण किया है। 
                         उनकी राजनितिक प्रवृत्तियों में अखंड भारत का आंदोलन एक ऐतिहासिक प्रवृत्ति है। इस आंदोलन द्वारा श्री.  कन्हैयालालजी ने भारत के राष्ट्रवादियों के गूढ़ मनस्ताप का और तज्जन्य भारत की अखंडता की रक्षा के संकल्प का तेजस्वितापूर्ण प्रतिनिधित्व किया था।  
                          श्री. मुंशीजी का हिंदी जगत से घनिष्ठ सम्बन्ध था।  वे भारत की अखंडता के लिए हिंदी को अनिवार्य मानते थे। जब उन्होंने सं. 1935 में प्रेमचंदजी के सहयोग से ' हंस ' पत्रिका को अंतरप्रांतीय साहित्य के अग्रदूत के रूप में बम्बई से प्रकाशित करना आरम्भ किया था। उन्होंने ही बम्बई के ' भारतीय विद्या भवन ' की स्थापना की थी।  
                           उदयपुर में सं. 1946 में आयोजित अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन के 33 वे अधिवेशन में उन्होंने सभापति का पद भी विभूषित किया था।  सं. 1912 में उन्होंने ' भार्गव ' पत्रिका का संपादन भी किया था।  इसी वर्ष उनकी प्रथम कहानी ' मारी कमला ' गुजराती में घनश्याम व्यास के नाम से प्रकाशित हुई थी।  सं. 1913 में उनका प्रथम सामाजिक उपन्यास ' वेटनी वसुलात ' अज्ञात नाम से ' गुजराती ' साप्ताहिक के कई अंकों में प्रकाशित हुआ था। 
                         श्री. कन्हैयालालजी  सं. 1917 में अखिल भारतीय कॉग्रेस की विषय समिति के सदस्य बन गए। इसके अलावा वे उस समय पश्चिमी भारत की प्रमुख राजनितिक संस्था बम्बई प्रेजिडेंसी एसोसिएशन के मंत्री भी चुने गए थे।  वहीं दो वर्ष बाद ही वे बम्बई होमरूल लीग के मंत्री भी चुने  गए थे। सं. 1946 में वे विधान परिषद के सदस्य भी चुने गए तथा भारत के विधान का प्रारूप तैयार करने के लिए कुशल समिति के सदस्य नियुक्त हुए थे।  वहीं नवंबर 1947 में श्री. कन्हैयालालजी भारत सरकार के एजेंट जनरल के रूप में हैदराबाद में नियुक्त हुए थे। 
                            मुंशीजी की साहित्यिक धरोहर अधिकतर गुजराती में है जिनमे  सामाजिक उपन्यासों में   ' कोनो वांक '[ 1914-16], ' स्वप्न द्रष्टा '[ 1924-25] , आदि। ऐतिहासिक उपन्यासों में   ' जय सोमनाथ ' [1940 ] ,  ' राजाधिराज ' [1922- 23 ] ,तथा ' भगवान कौटिल्य ' [ 1924 - 25 ] , शामिल है। इसके अलावा उन्होंने नाटक , उपन्यास , जीवन कथाएं , आत्मकथाएं , सामाजिक नाटक , ऐतिहासिक नाटक भी लिखे है। 
                           श्री. कन्हैयालालजी को 20 नवंबर 1946 को बनारस हिन्दू  विश्वविद्यालय ने डी लिट् की मानद उपाधि से अलंकृत किया था। ऐसे सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनि को शत शत नमन।