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डॉ. राजेंद्र प्रसाद 


              '' समाज की पतितावस्था का मुख्य कारण शिक्षा का अभाव है।  हमारे देश में शिक्षित मनुष्यों की संख्या इतनी कम है कि यदि कोई नया प्रस्ताव किया जाय तो उसे सैकड़े पीछे पंचानवे जान ही नहीं सकते।  उनके जानने -जताने के दो ही उपाय हो सकते है - एक समाचार पत्रों के द्वारा और दूसरा व्याख्यानों या उपदेशों के द्वारा। '' 
                उक्त पंक्तियाँ सं 1910 में ' भारतोदय ' में प्रकाशित एक लेख से है , जिन्होंने प्रथम लेख अपने विद्यार्थी जीवन में ही लिखा वे और कोई नहीं हमारे पूर्व राष्ट्रपति एवं साहित्यकार डॉ. राजेंद्र प्रसादजी है।  
              अपने त्यागमय जीवन , कुशाग्रबुद्धि तथा निस्वार्थ देशभक्ति के लिए जाने जानेवाले डॉ. राजेंद्र प्रसादजी का जन्म 3 दिसंबर 1884 में बिहार के जीरादेइ गांव में हुआ। विद्यालय में दाखिल होने से पहले घर पर ही एक मौलवी साहब से उन्होंने फ़ारसी पढ़ी।  अपने विद्यालय में हिंदी पढ़ना शुरू किया और वहीँ कुछ दिनों के बाद हिंदी के बदले संस्कृत पढ़ी।  उनके पिताजी की आशा थी कि राजेन्द्रबाबू पढ़कर बड़े वकील होंगे।  इसी  आशा के कारण उनका हिंदी से संपर्क छूट गया। 
               उनकी उच्च शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई। कुछ दिनों तक बिहार में अध्ययन का कार्य करने के उपरांत उन्होंने कलकत्ता में ही कानून की परीक्षा पास की और सं. 1921 में कलकत्ता हाई कोर्ट में वकालत आरम्भ की।  सं. 1926 में वे पटना आ गए और वहां पर वकालत आरम्भ कर दी। 
                डॉ. राजेंद्र प्रसादजी  कलकत्ता स्थित ' हिंदी भाषा परिषद् ' नामक एक संस्था में नियमित जाते थे , जहां पर श्री. अम्बिका प्रसाद वाजपई , श्री. जग्गनाथ प्रसाद चतुर्वेदी , श्री. उमापति दत्त शर्मा ,आदि महानुभवों के संपर्क में आ गए और इसी के फलस्वरूप उनमे हिंदी के प्रति अनुराग पैदा हो गया। 
                हिंदी साहित्य सम्मलेन का प्रथम अधिवेशन सं. 1910 में पंडित मदन मोहन मालवीयजी के सभापतित्व में हुआ था , जिसमे डॉ. राजेंद्र प्रसादजी का परिचय श्री. पुरषोतमदास टंडनजी से हुआ था। 
                कलकत्ता में जब हिंदी साहित्य सम्मलेन का अधिवेशन हुआ तब स्वागत समिति के मंत्री डॉ. प्रसादजी थे , जबकि पंडित छोटेलाल मिश्रजी अध्यक्ष।  उसके बाद उनका सम्बन्ध सतत सम्मलेन से बना रहा रहा।  सं. 1920 में जब पटना में सम्मलेन का अधिवेशन हुआ तो डॉ. प्रसादजी पुनः स्वागत समिति के पदाधिकारी बने और सं.1936 में नागपुर सम्मलेन के अध्यक्ष चुन लिए गए।  
                  डॉ. राजेंद्र प्रसादजी की शिक्षा अंग्रेजी के माध्यम से होने के बावजूद उनका हिंदी के अनेक विद्धवानो से परिचय और उनके संपर्क में आने से हिंदी भाषा के प्रति उनकी सहज रूचि जाग्रत हुई।  डॉ.प्रसादजी के संपर्क में आनेवाले प्रमुख हिंदी विद्वानों में श्री. बाबूराव् विष्णु पराड़कर , श्री. लक्ष्मणराव  गर्दे , श्री. जीवानंद शर्मा तथा श्री. पारसनाथ त्रिपाठी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 
                    बिहार प्रांतीय सम्मलेन के साथ और राष्ट्र भाषा प्रचार सभा के साथ भी उनका क्रियात्मक तथा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। महात्मा गांधीजी की आज्ञा के अनुसार वे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार के उच्च पदपदाधिकारी रहे और तत्पश्चात उसके अध्यक्ष भी बने। 
                    सं. 1928 में जब डॉ. राजेंद्र प्रसादजी इंग्लैंड गए थे , तब वहां से उन्होंने अपने अनुभव लेखों के रूप में लिख भेजे जो पटना से ' मेरी यूरोप यात्रा ' शीर्षक लेख ' देश ' साप्ताहिक में प्रकाशित हुए।  आगे चलकर उन्होंने अपनी ' आत्म कथा ' हिंदी में लिखी।  यह बृहत ग्रंथ उनके हिंदी पर पूर्ण अधिकार का प्रमाण है। 
                     सुभाष बाबू के सं. 1934 में त्यागपत्र  देने से डॉ. राजेंद्र प्रसादजी  को सं. 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का सभापति चुना गया।  पुनः सं. 1947 में सभापति पद की जिम्मेदारी उन पर आ गई। भारत की आजादी के पश्चात सं. 1950 में वे राष्ट्रपति पद पर आसीन हो गए और सं. 1962 तक उस पद को उन्होंने सुशोभित किया।  इसके पहले   डॉ. राजेंद्र प्रसादजी केंद्र में खाद्य और कृषि मंत्री भी रहे। इसके आलावा उन्होंने भारतीय संविधान परिषद् के अध्यक्ष के रूप में भारत भावी स्वरुप को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
                       डॉ. राजेंद्र प्रसादजी के विचारों और नेतृत्व के फलस्वरूप बिहार विद्यापीठ की स्थापना हुई , जहां शिक्षा का माध्यम हिंदी रखा गया।  इससे पहले पटना विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी में भारतीय भाषाओँ विशेषकर हिंदी सम्बन्धी प्रस्ताव को उन्होंने ही प्रस्तुत किया था।  उन्होंने अपनी सभी रचनाएँ मौलिक रूप से हिंदी में लिखी और बाद में उनके अनुवाद दूसरी भाषाओ में किये गए। 
                        नागरी प्रचारिणी सभा ने डॉ. राजेंद्र प्रसादजी को उनके ' आत्मकथा ' पर '' मंगलप्रसाद '' पारितोषिक दिया।  वहीँ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ने उन्हें दो पुरस्कार दिए , जिनमें एक सर्वप्रथम वयोवृद्ध हिंदी सेवी होने के नाते और दूसरा गाँधी साहित्य पर सर्वोत्तम रचना ' बापू के कदमो में ' के लिए। 
                     अपने सादगी से परिपूर्ण जीवन में डॉ. राजेंद्रप्रसाद जी ने बारह वर्षो तक राष्ट्रपति पद को सुशोभित करते हुए उहोंने भारत की शान और इज्जत बढ़ाई। अपने अचार विचार तथा मान्यताओं द्वारा भारत का सच्चे अर्थो में प्रतिनिधित्व  करते हुए आखिरकार 28  फरवरी 1963 को पटना में ही अपनी आंखे सदा - सदा के लिए मुंद ली और अपनी एक मिसाल कायम कर दी।