वीर सावरकर


                                                                         
https://www.makeinmeezon.com/2019/12/blog-post58.html
वीर सावरकर

                ‘’ मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मै अपना मन अर्पित कर चूका हूँ । देश सेवा ही ईश्वर — सेवा है,यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की ‘’ — — — वीर सावरकर

                       ‘’ संस्कृतनिष्ठ हिंदी को ही हर हालत में राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए । मुसलमान लोगों को प्रसन्न की आवश्यकता नहीं। हिंदी से संस्कृत शब्दों का बहिष्कार उचित नहीं ।’’हाँ , आप इसे पढ़कर समझ गए होंगे कि यह विचार किसके है । नहीं ? तो चलिए हम बता देते है की ये विचार हमारे स्वातंत्रवीर वीर सावरकरजी के है। उन्होंने ये विचार ‘ राष्ट्रभाषा हिंदी का नया स्वरुप ‘ शीर्षक लेख में व्यक्त किये है ।सं. १९३७ में हुए अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के रत्नागिरी अधिवेशन में श्री. सावरकरजी के प्रयत्न से अखिल भारतीय भाषा के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव पारित हुआ , उसके अनुसार देवनागरी लिपि और संस्कृत गर्भित हिंदी को राष्ट्र स्वीकृत किया गया था ।''
                  श्री. विनायक दामोदर सावरकरजी का जन्म २८ मई १८८३ को महाराष्ट्र के नासिक क्षेत्र के निकट भागुर गांव में हुआ था । उनके पिता का नाम श्री. दामोदर पंत सावरकर तथा उनकी माताजी का नाम राधाबाई था । जब श्री. सावरकरजी केवल ९ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी से उनकी माताजी का देहांत हो गया । इसके पश्चात सात वर्षों के बाद सं १८९९ में प्लेग के कारण सावरकरजी के पिता भी स्वर्गवासी हो गए । माता -पिता के जाने के बाद उनके बड़े भाई श्री. गणेश सावरकरजी ने परिवार के पालन -पोषण का कार्य निभाया ।
                            सावरकरजी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नासिक के ही ‘ शिवाजी हाईस्कूल से सं. १९०१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की । उन्हें बचपन से ही पढ़ने में काफी रूचि थी , अपितु उन दिनों में उन्होंने कुछ कवितायेँ भी लिखी थी । उस दौरान सावरकरजी ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित कर ‘ मित्र मेलों ‘ का आयोजन किया। इसी के परिणाम स्वरुप शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रांति की ज्वाला जाग उठी । श्री. रामचंद्र त्रिम्बक चिपलूनकर जी की पुत्री यमुनाबाईके साथ उनका विवाह सं. १९०१ में हुआ ।सावरकरजी के ससुरजी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया था । सावरकरजी ने १९०२ में मैट्रिक की पढ़ाई के पश्चात पुणे के फर्गुसन कॉलेज से बी.ए की उपाधि प्राप्त की ।
                           श्री. सावरकरजी अपने विश्वविद्यालय अध्ययन के दौरान राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत ओजस्वी भाषण दिया करते थे। वहीं उन्होंने सं. 1904 में ‘ अभिनव भारत ‘ नामक क्रन्तिकारी संगठन की स्थापना भी की थी। सं. 1905 में जब बंगाल का विभाजन हुआ , उस समय उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। सं. 1906 में उन्हें श्री. बालगंगाधर तिलकजी के अनुमोदन के कारण ‘ श्यामजी कृष्ण वर्मा ‘ छात्रवृत्ति प्राप्त हुई थी।
                     उन्होंने सं. 1907 में लंदन स्थित इंडिया हाउस में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई थी। इस अवसर पर श्री. सावरकरजी ने अपने ओजस्वी भाषण में सं. 1857 के संग्राम को ग़दर नहीं , अपितु भारत के स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम सिद्ध किया था। श्री. सावरकरजी रुसी क्रांतिकारियों से अधिक प्रभावित थे। उनके ‘ इंडियन सोसियोलॉजिस्ट ‘ तथा ‘ तलवार ‘ नामक पत्रिकाओं में अनेक लेख प्रकाशित हुए थे।
                        श्री. सावरकरजी की एक पुस्तक ‘ द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेन्स : 1857 ‘ जून 1908 में तैयार हो गई थी , परन्तु इसे छपवाने की गंभीर समस्या हो गई। इसे छपवाने लंदन से लेकर पेरिस तथा जर्मनी में प्रयास किये गये किन्तु असफलता ही हाथ लगी। किसी तरह इस पुस्तक को गुप्त रूप से ‘ हॉलैंड ‘ से प्रकाशित कर इसकी प्रतियां फ्रांस पहुंचाई गई थी। वैसे इस पुस्तक में सावरकरजी ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया था।
                        जब वे लंदन में रहते थे तब उनका परिचय श्री. लाला हरदयाल से हुआ। उस समय श्री. लाला ‘ इंडिया हाउस ‘ की देखभाल करते थे। वहीं 1 जुलाई 1909 को श्री. मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिए जाने के बाद श्री. सावरकरजी ने ‘ लंदन टाइम्स ‘ में लेख लिखा था। 13 मई 1910 को वे पेरिस से लंदन पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उसी वर्ष 8 जुलाई को ‘ एस एस मोरिया ‘ नामक जहाज से भारत ले जाते हुए श्री. सावरकरजी सीवर होल के रास्ते भाग निकले।
                       उन्हें 24 दिसम्बर 1910 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इसके पश्चात 31 जनवरी 1911 को दुबारा आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। ब्रिटिश सरकार ने इस तरह सावरकरजी को क्रांति कार्यों के लिए दो — दो बार आजन्म कारावास की सजा सुनाई। यह विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा साबित हुई थी।
                  नासिक षडयंत्र ‘ काण्ड के अंतर्गत नासिक जिले के कलेक्टर जैक्सन की हत्या के लिए सावरकरजी को 7 अप्रैल 1911 को कला पानी की सजा के लिए सेलुलर जेल भेजा गया था। जहां पर कैदियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। इस सेलुलर जेल में स्वतंत्रता सेनानी कैदियों को नारियल छीलकर उसमे से तेल निकालना पडता था और उन्हें कोल्हू में बैल की तरह जुत कर नारियल का तेल निकालना होता था। वहीं जेल के साथ लगे जंगलों को साफ़ कर दलदली भूमि तथा पहाड़ी क्षेत्र को समतल करना होता था।
                       सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से बम्बई में स्थापित पतित पावन मंदिर की स्थापना में श्री. सावरकरजी के महत्वपूर्ण प्रयास थे। 25 फरवरी 1931 में बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मलेन की भी अध्यक्षता की थी।
                    श्री. सावरकरजी 6 बार अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रिय अध्यक्ष चुने गए थे। हिन्दू राष्ट्र की राजनितिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकरजी को ही जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है की उनकी इस विचारधारा को आजादी के बाद की सरकारों ने वह महत्व नहीं दिया , जिसके वे वास्तविक हक़दार थे।
                 15 अगस्त 1947 को उन्होंने सदांतो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा का ध्वजारोहण करने के पश्चात अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘ मुझे स्वराज्य प्राप्ति की ख़ुशी है , परन्तु वह खंडित है इसका दुःख है।
उनकी लोकप्रिय कविताओं में मराठी की ‘’ सागरा प्राण तळमळला ‘ , ‘ हे हिन्दू नृसिंह प्रभो शिवाजी राजा ‘’ , ‘ जयोस्तुते ‘ ,, ‘ तानाजी पोवाड़ा ‘ आदि विशेष उल्लेखनीय है।
                        ऐसे महान क्रन्तिकारी , महान सुधारक श्री. सावरकरजी को सं. 1965 में तेज ज्वर ने आ घेरा , इस कारण उनका स्वास्थ गिरने लगा। उन्होंने 1 फरवरी 1966 को मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। 26 फरवरी को बम्बई में प्रातः 10 बजे अपना पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया। उस महान विभूति को हमारा शत -शत नमन।