गंभीर दार्शनिक - डॉ. संपूर्णानन्द
उत्तर प्रदेश के प्रमुख जननायकों में डॉ. सम्पूर्णानन्द जी का नाम आदर से लिया जाता है। सम्पूर्णानन्दजी की साहित्य सेवाओं से हिंदी का भंडार भरा पड़ा है और जिनके प्रबल समर्थन से समय समय पर हिंदी को अमूल्य सहारा मिला है। वे विज्ञानं के स्नातक होते हुए भी आरम्भ से ही साहित्यिक लेखन और अध्ययन में उन्हें गहरी रूचि थी।
डॉ सम्पूर्णानन्दजी का जन्म सं 1892 में काशी के एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानन्द था। विजयानन्द जी प्रारम्भ में ब्रिटिश भारत के शासकीय कर्मचारी थे , परन्तु अपनी ईमानदारी तथा अध्यवसाय के फलस्वरूप उन्नति करते हुए वह बनारस डिवीज़न के कमिश्नर के सहायक पद पर नियुक्त हुए।
सम्पूर्णानन्द जी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई और अठारह वर्ष की अवस्था में बनारस के क्वीन्स कॉलेज से बी. एस . सी .की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात एक वर्ष बाद उन्होंने प्रयाग से एल टी की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने सं 1907 में प्रतिज्ञा की थी कि वह विदेशी शासन की अधीनता स्वीकार न करेंगे , अतः उन्होंने अपनी रूचि और विचारधारा को देखते हुए भारती के मंदिर में आराधना करना ही उचित समझा तथा अध्यापक के रूप कार्य आरम्भ किया।
इसी कारणवश डॉ सम्पूर्णानन्द जी बनारस के हरिश्चंद्र हाई स्कूल , वृन्दावन के प्रेम महाविद्यालय तथा इंदौर के राजकुमार कॉलेज में अध्यापक के पद पर कार्य किया इसके पश्चात उन्हें बीकानेर स्थित डूंगर कॉलेज के प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त किया गया।
सम्पूर्णानन्दजी की पहली कविता सं 1915 के ' नवनीत ' अंक में प्रकाशित हुई थी। जब गोखले की मृत्यु पर उनके उमड़ते हुए विचारों ने कविता का रूप ले लिया। सम्भवता: यह उनकी पहली कविता थी , जो इस प्रकार है -
'' देशभक्त देहावसान -
हा विधि ! क्या सुनाई आज।
देशभारत परम आरत , दुखी दींन समाज ,
गोखले की मृत्यु से गई डूब राष्ट्र जहाज।
स्वार्थ त्यागी अनन्य कीन्हों जाति के हित काज,
ईश संग संपूर्ण आनंद पाइ करहि स्वराज। ''
सम्पूर्णानन्दजी पहले साहित्य के क्षेत्र में एक कवी के रूप में अवतरित हुए थे। वे प्राय: पत्र - पत्रिकाओं के लिए छोटी छोटी सारगर्भित कवितायेँ लिखते थे और अपना नाम छपवाते थे। उनकी कविताओं का विषय प्राय: देशभक्ति और कभी कभी भक्तिभाव होता था।
विज्ञानं के स्नातक होते हुए भी उन्हें आरम्भ से ही साहित्यिक लेखन और अध्ययन में रूचि थी तभी तो उन्होंने संस्कृत का भी अध्ययन किया था। उनके अथाह परिश्रम तथा लगन से गहन विषय न ठहर सके। वेद वेदांगों से लेकर इतिहास , राजनीती , विज्ञानं आदि सभी को उनकी प्रतिभा ने समेट लिया।
डॉ. सम्पूर्णानन्दजी का काशी विद्यापीठ से वर्षों तक सम्बन्ध रहा , किन्तु वास्तव में वह कार्य भी उस सार्वजनिक कार्य का ही एक अंग था , जिसे उन्होंने सदा के लिए अपनाया था। वे अपना अध्यापन कार्य अधिक समय तक न कर सके। उनके अपने बौद्धिक विकास और तज्जन्य राष्ट्र सेवा की भावना से सं 1921 में ही उनसे यह कार्य छुड़वा दिया।
प्रथम असहयोग आंदोलन के अवसर पर स्वतंत्रता संग्राम में उत्साही सैनिक की भांति सक्रिय सहयोग देने हेतु उन्होंने प्रिंसिपल का पद त्याग कर राजनितिक आंदोलन में भाग लेने हेतु कशी का रुख किया। स्वतंत्र संग्राम कांग्रेस का रचात्मक कार्यक्रम और हर प्रकार की समाज सेवा में जो उतार चढाव होते है , वे ही अब सम्पूर्णानन्दजी के चिरसाथी बन गए। परन्तु उनका अध्ययन और अनुशीलन बराबर जारी रहा।
सम्पूर्णानन्दजी दर्शन , अध्यात्मवाद आदि में पारंगत हो गए और उनकी लेखनी से हिंदी को अनमोल रत्न मिलते रहे। वैसे उन्होंने कुछ पुस्तकें मूलरूप से अंग्रेजी में भी लिखी है। उनका बौद्धिक धरातल बहुत ऊँचा था, इसलिए गंभीर विषयों की ओर वे अधिक आकर्षित होते थे। उनकी विद्धवता और प्रतिभा ने देश की जनता और नेताओं को खूब प्रभावित किया था।
उनकी लेखनी साहित्य - निर्माण में सतत लीन चली जा रही थी। गंभीर दार्शनिक होते हुए भी वे राजनिति , समाजशास्त्र , समाजवाद और गाँधीवादी के अद्वितीय लेखक एवं चिंतक थे। हिंदी , उर्दू , अंग्रेजी , संस्कृत में किसी भी गंभीर विषय पर भाषण देना उनकी विशेषता थी। उनकी लेखन शैली गंभीर , विचार प्रधान और पांडित्यपूर्ण होते हुए भी सुगम थी।
डॉ. सम्पूर्णानन्दजी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए भी और हर समय राजनिति की उलझनो में उलझे रहने पर भी लेखनकार्य के लिए समय निकालते ही थे। उनके इसी तप के परिणाम स्वरुप हिंदी साहित्य में अधिक संख्या में उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त हुई है।
सम्पूर्णानन्दजी की लिखित पुस्तकों में -------
१] बौद्धिक विज्ञान ,२] चीन की राज्य क्रांति , ३] सम्राट अशोक
४] अंतराष्ट्रीय विधान , ५] समाजवाद , ६] व्यक्ति और राज ७] जीवन और दर्शन , ८] भाषा शक्ति , ९] हिन्दू विवाह में कन्यादान का स्थान , १०] भारतीय बुद्धिजीवी तथा ११] धर्मवीर गाँधी आदि उल्लेखनीय है।
डॉ. संपूर्णानन्द |
डॉ सम्पूर्णानन्दजी का जन्म सं 1892 में काशी के एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानन्द था। विजयानन्द जी प्रारम्भ में ब्रिटिश भारत के शासकीय कर्मचारी थे , परन्तु अपनी ईमानदारी तथा अध्यवसाय के फलस्वरूप उन्नति करते हुए वह बनारस डिवीज़न के कमिश्नर के सहायक पद पर नियुक्त हुए।
सम्पूर्णानन्द जी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई और अठारह वर्ष की अवस्था में बनारस के क्वीन्स कॉलेज से बी. एस . सी .की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात एक वर्ष बाद उन्होंने प्रयाग से एल टी की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने सं 1907 में प्रतिज्ञा की थी कि वह विदेशी शासन की अधीनता स्वीकार न करेंगे , अतः उन्होंने अपनी रूचि और विचारधारा को देखते हुए भारती के मंदिर में आराधना करना ही उचित समझा तथा अध्यापक के रूप कार्य आरम्भ किया।
इसी कारणवश डॉ सम्पूर्णानन्द जी बनारस के हरिश्चंद्र हाई स्कूल , वृन्दावन के प्रेम महाविद्यालय तथा इंदौर के राजकुमार कॉलेज में अध्यापक के पद पर कार्य किया इसके पश्चात उन्हें बीकानेर स्थित डूंगर कॉलेज के प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त किया गया।
सम्पूर्णानन्दजी की पहली कविता सं 1915 के ' नवनीत ' अंक में प्रकाशित हुई थी। जब गोखले की मृत्यु पर उनके उमड़ते हुए विचारों ने कविता का रूप ले लिया। सम्भवता: यह उनकी पहली कविता थी , जो इस प्रकार है -
'' देशभक्त देहावसान -
हा विधि ! क्या सुनाई आज।
देशभारत परम आरत , दुखी दींन समाज ,
गोखले की मृत्यु से गई डूब राष्ट्र जहाज।
स्वार्थ त्यागी अनन्य कीन्हों जाति के हित काज,
ईश संग संपूर्ण आनंद पाइ करहि स्वराज। ''
सम्पूर्णानन्दजी पहले साहित्य के क्षेत्र में एक कवी के रूप में अवतरित हुए थे। वे प्राय: पत्र - पत्रिकाओं के लिए छोटी छोटी सारगर्भित कवितायेँ लिखते थे और अपना नाम छपवाते थे। उनकी कविताओं का विषय प्राय: देशभक्ति और कभी कभी भक्तिभाव होता था।
विज्ञानं के स्नातक होते हुए भी उन्हें आरम्भ से ही साहित्यिक लेखन और अध्ययन में रूचि थी तभी तो उन्होंने संस्कृत का भी अध्ययन किया था। उनके अथाह परिश्रम तथा लगन से गहन विषय न ठहर सके। वेद वेदांगों से लेकर इतिहास , राजनीती , विज्ञानं आदि सभी को उनकी प्रतिभा ने समेट लिया।
डॉ. सम्पूर्णानन्दजी का काशी विद्यापीठ से वर्षों तक सम्बन्ध रहा , किन्तु वास्तव में वह कार्य भी उस सार्वजनिक कार्य का ही एक अंग था , जिसे उन्होंने सदा के लिए अपनाया था। वे अपना अध्यापन कार्य अधिक समय तक न कर सके। उनके अपने बौद्धिक विकास और तज्जन्य राष्ट्र सेवा की भावना से सं 1921 में ही उनसे यह कार्य छुड़वा दिया।
प्रथम असहयोग आंदोलन के अवसर पर स्वतंत्रता संग्राम में उत्साही सैनिक की भांति सक्रिय सहयोग देने हेतु उन्होंने प्रिंसिपल का पद त्याग कर राजनितिक आंदोलन में भाग लेने हेतु कशी का रुख किया। स्वतंत्र संग्राम कांग्रेस का रचात्मक कार्यक्रम और हर प्रकार की समाज सेवा में जो उतार चढाव होते है , वे ही अब सम्पूर्णानन्दजी के चिरसाथी बन गए। परन्तु उनका अध्ययन और अनुशीलन बराबर जारी रहा।
सम्पूर्णानन्दजी दर्शन , अध्यात्मवाद आदि में पारंगत हो गए और उनकी लेखनी से हिंदी को अनमोल रत्न मिलते रहे। वैसे उन्होंने कुछ पुस्तकें मूलरूप से अंग्रेजी में भी लिखी है। उनका बौद्धिक धरातल बहुत ऊँचा था, इसलिए गंभीर विषयों की ओर वे अधिक आकर्षित होते थे। उनकी विद्धवता और प्रतिभा ने देश की जनता और नेताओं को खूब प्रभावित किया था।
उनकी लेखनी साहित्य - निर्माण में सतत लीन चली जा रही थी। गंभीर दार्शनिक होते हुए भी वे राजनिति , समाजशास्त्र , समाजवाद और गाँधीवादी के अद्वितीय लेखक एवं चिंतक थे। हिंदी , उर्दू , अंग्रेजी , संस्कृत में किसी भी गंभीर विषय पर भाषण देना उनकी विशेषता थी। उनकी लेखन शैली गंभीर , विचार प्रधान और पांडित्यपूर्ण होते हुए भी सुगम थी।
डॉ. सम्पूर्णानन्दजी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए भी और हर समय राजनिति की उलझनो में उलझे रहने पर भी लेखनकार्य के लिए समय निकालते ही थे। उनके इसी तप के परिणाम स्वरुप हिंदी साहित्य में अधिक संख्या में उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त हुई है।
सम्पूर्णानन्दजी की लिखित पुस्तकों में -------
१] बौद्धिक विज्ञान ,२] चीन की राज्य क्रांति , ३] सम्राट अशोक
४] अंतराष्ट्रीय विधान , ५] समाजवाद , ६] व्यक्ति और राज ७] जीवन और दर्शन , ८] भाषा शक्ति , ९] हिन्दू विवाह में कन्यादान का स्थान , १०] भारतीय बुद्धिजीवी तथा ११] धर्मवीर गाँधी आदि उल्लेखनीय है।
0 टिप्पणियाँ