कोमल भावनावों के कवी : बालकृष्ण शर्मा ' नवीन '


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कोमल भावनावों के कवी : बालकृष्ण शर्मा ' नवीन '


            प्रथम असहयोग - आंदोलन से प्रभावित होकर कॉलेज छोड़ा और श्री . गणेश शंकर विद्यार्थीजी के संपर्क में आने से पत्रकारिता और जनसेवा की ओर प्रेरित होने वाले श्री . बालकृष्ण शर्मा ' नवीन ' जी की गणना उन दिनों कानपूर के प्रमुख नेताओं में की जाती थी , वहीं हिंदी साहित्य के सागर में अपनी काव्यधारा से अपनी विशिष्ठ पहचान दर्ज की है।  
          साधारण स्थिति के वल्लभ मतानुयायी ब्राह्मण पंडित जमुना प्रसाद शर्माजी के घर श्री बालकृष्ण का जन्म संवत 1954  में हुआ था। ग्वालियर राज्य के शुजालपुर परगने के भयाना नामक गांव में जन्मे श्री .बालकृष्ण जी का विद्याध्ययन दस वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ हुआ।  उन्होंने वहीं से अंग्रेजी मिडिल पासकर उज्जैन के माध्यम कॉलेज में प्रवेश लिया। 
         शर्माजी कॉग्रेस का अधिवेशन देखने लखनऊ गये।  वहां पर श्री . गणेश शंकर विद्यार्थी से उनका परिचय हुआ।  विद्यार्थीजी ने उनकी आर्थिक सहायता की।  उसी के परिणाम स्वरुप श्री बालकृष्णजी कानपूर के क्राइस्ट चर्च कॉलेज में पढ़ने लगे। जब वे बी. ए .की पढाई कर रहे थे , उसी वर्ष देश में असहयोग आंदोलन आरम्भ हो गया था।  उन्होंने  अपनी बी . ए . की पढाई बीच में छोड़ दी और देश सेवा करने आगे बढे। 
      श्री . बालकृष्णजी ने एक मासिक पत्रिका का दो वर्षों तक संपादन किया।  इसके पश्चात उन्होंने ' दैनिक प्रताप 'में कार्य आरम्भ कर दिया।  अपनी साहित्यिक प्रतिभा , लगन और कॉग्रेस आंदोलन के कारण नगर और प्रान्त की कॉग्रेस समिति में वे आगे बढकर भाग लेने लगे।  श्री .शर्माजी नागरिक मामलों में विशेषकर मील मजदूरों की समस्याओं में अधिक दलिचस्पी लेते रहे। 
        उच्चकोटि के साहित्यिक एवं  कवी के नाते उनकी ख्याति फैलने लगी थी।  यहां तक कहा जाता था कि श्री . गणेश शंकर विद्यार्थीजी के जीवनकाल में ही लोग श्री. बालकृष्णजी को उनका उत्तर्राधिकारी कहने लगे थे।  जब सं 1931 में कानपूर के दंगों में श्री . विद्यार्थीजी की हत्या हो गई , उसके बाद से श्री . बालकृष्ण जी '' दैनिक प्रताप '' के संपादक तथा कानपूर के एकछत्र नेता स्वीकार कर लिए गए।
         वैसे तो कवी के रूप में उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा बहुत पहले हो चुकी थी।  उनकी घनिष्ठ मित्रमंडली में राजनेताओं की अपेक्षा हिंदी के उच्च साहित्यकार ही अधिक थे।  सं 1946 में कानपूर छोड़कर दिल्ली आने तक श्री . शर्माजी का स्थान हिंदी के प्रमुख पत्रकारों में रहा।  उनको कई बार जेल जाना पड़ा और अपनी इन जेल यात्राओं में ही उन्होंने ' विस्मृता ' तथा ' उर्मिला ' नामक काव्य पूर्ण किया।  वे भारतीय संसद के सदस्य भी रहे और हिंदी आंदोलन के कटटर समर्थक भी रहे।  
         श्री . बालकृष्णजी केवल कवी नहीं थे , अपितु वे तो आधुनिक हिंदी काव्य धारा के राष्ट्र कवी थे। उन्होंने आजादी के लिए स्वयं स्वतंत्रता संग्राम में सक्रीय रूप से भाग लिया था।  तभी तो उनकी प्रत्येक रचना में देश प्रेम सम्बन्धी गुलामी की जंजीरें तोड़ने और उथल - पुथल मचा देने का आवाहन मिलता है।  
          उनकी प्रथम रचना ' सन्तु ' नामक एक कहानी है जो इलाहबाद से प्रकाशित होनेवाली ' सरस्वती ' नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।  इसके पश्चात उनकी एक कविता ' जीव और ईश्वर से वार्तालाप ' मुरादाबाद से प्रकाशित होने वाली ' प्रतिभा ' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। 
           उनकी कविता में दार्शनिकता है , ऊँचे से ऊँचा आदर्शवाद है और एक भावुक प्रेमी की उड़ान है , जो कल्पना के पंखों के सहारे नीलगगन में विचरने को उत्सुक्त है।  उन्होंने फुटकर कविताओं के अतिरिक्त एक दो महाकाव्य भी लिखे है।  एक कवी के आलावा श्री .बालकृष्णजी सशक्त गद्य लेखक भी थे।  उनके कितने ही निबंध और विशेष लेख ' प्रताप ' , ' माधुरी ' , और ' सरस्वती ' में छपे है।  
            श्री .बालकृष्णजी में इतना साहस था की हिंदी - हिंदुस्तानी के प्रश्न पर उन्होंने अपने आराध्य महात्मा गांधीजी का भी खुला विरोध किया था।  राष्ट्रभाषा सम्बन्धी प्रस्ताव को लेकर संविधान सभा में जो वाद विवाद हुआ , उसे सुलझाने में और हिंदी के पक्ष का प्रतिपादन करने में श्री . बालकृष्णजी की सेवाएं चिर स्मरणीय रहेंगी।