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 काका कालेलकर

    
                        '' हमारा राष्ट्र भाषा प्रचार एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है । वह पक्ष - निरपेक्ष है।  जिन लोगों को हिंदुस्तान की एकता अभीष्ट है , उन्हें राष्ट्र - संघटन आज का युगधर्म सा मालूम होता है । स्वराज्य जिनके लिए प्राण स्वरुप है ,ऐसे सब लोग राष्ट्रभाषा प्रचार के आंदोलन में शरीक हो सकते है । प्रांतीय भाषा के अभिमानियों को मै इतना ही कहूंगा कि राष्ट्रभाषा के प्रचारक हम लोग हिंदी भाषा - भाषी नहीं है । ''      
              उक्ताशय के उद्गार दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अधिवेशन में सं १९३८ राष्ट्रभाषा प्रचार के लिए अपना जीवन समर्पित करनेवाले श्रद्धेय श्री काका साहब कालेलकर जी ने व्यक्त किये थे । 
             काका कालेलकर एक उच्च कोटि के विचारक और विद्धवान थे । उनका योगदान हिंदी भाषा के प्रचार तक ही सीमित नहीं है । उनकी अपनी मौलिक रचनाओं से भी हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ है ।   
             काका कालेलकरजी का जन्म १ दिसंबर १८८५ को महाराष्ट्र के सातारा में हुआ। वैसे उनका परिवार मूलरूप से कर्नाटक स्थित कारवार जिले में रहता था । उनकी मातृ भाषा कोंकणी थी । परन्तु अनेक वर्षों से गुजरात में बस जाने के कारण उनका गुजरती भाषा पर बहुत अधिकार था । इसी कारण वे गुजराती के प्रख्यात लेखक थे । 
            काका साहब की यह विशेषता थी की उन्होंने पहले स्वयं हिंदी सीखी और कई वर्षों तक दक्षिण में सम्मलेन की ओर से प्रचार - प्रसार का कार्य करते रहे । उनकी विलक्षणता , सूझ बुझ तथा व्यापक अध्ययन के कारण ही उनकी गणना प्रमुख अध्यापकों तथा व्यवस्थापकों में होने लगी । 
           जब कभी हिंदी - प्रचार के कार्य में जहां कहीं कोई दोष दिखाई पड़ते अथवा किन्ही कारणों से उसकी प्रगति रुक जाती तब महात्मा गांधीजी काका साहब को जांच के लिए वहीं भेजते । 
           गुजरात में जब ' राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की गई उस समय गुजरात में हिंदी - प्रचार की व्यवस्था करने के उद्देश्य से गांधीजी ने काका साहब को चुना । अपनी विलक्षणता के कारण ही उन्होंने दक्षिणी भाषाओँ का ज्ञान भी प्राप्त किया । 
           गुजरात में हिंदी - प्रचार का दयित्व सँभालते हुए वहां पर उन्होंने गुजराती सीखना प्रारम्भ किया था । इसी के परिणाम स्वरुप वे गुजराती में धाराप्रवाह से बोलने लगे थे और साहित्य अकादमी में कालेलकरजी गुजराती भाषा के प्रतिनिधि बन गए । उनके अथक परिश्रम के कारण ही गुजरात में हिंदी प्रचार को अधिक सफलता मिली ।       
          काका कालेलकर जी का योगदान हिंदी भाषा के प्रचार तक ही सीमित नहीं रहा।  वे एक उच्च कोटि के विचारक और विद्वान थे तभी तो उन्होंने अपनी मौलिक रचनाओं से भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है । कलेलकरजी ने अपनी  सरल और ओजस्वी भाषा में विचारपूर्ण निबंध तथा विभिन्न विषयों की तर्कपूर्ण व्याख्या उनकी लेखन शैली का विशेष गुण रहा है ।   
          मूलरूप से वे विचारक और साहित्यकार होने के कारण उनकी अभिव्यक्ति की अपनी ही शैली थी । इस शैली को उन्होंने समान रूप से हिंदी , गुजराती ,  मराठी तथा बंगला भाषा में प्रयोग किया है ।
           उन्होंने अपनी पुस्तक  ' जीवन साहित्य ' में  ' साहित्य की कसौटी '  के विषय में लिखा है   ---
    '' साहित्य दैवी शक्ति है । इस शक्ति के बल पर निर्धन मनुष्य भी लोकप्रभु बन सकता है और महा सम्राट भी राजदंड से जो कुछ नहीं कर सकते , उसे शब्द - शक्ति द्वारा आसानी से साधता है । राजा को तनखाह देकर अपने यहां ' प्राणत्राण प्रवणमति ' ह्रदय शून्य सिपाही रखने पड़ते है। लेकिन साहित्य सम्राट के पास सज्जनो की स्वयंसेवी फ़ौज हमेशा तैयार रहती है । लोगों में उत्साह पैदा करना , लोगों की शुभवृत्ति को जाग्रत करना और सरस्वती के प्रसाद से लोगों का धर्म तेज प्रज्वलित करना साहित्यकार का काम है । सिर्फ जनरंजन करना , लोगों में जो जो वृतियां उत्पन्न होंगी , उन सबके लिए पर्याप्त आहार देना साहित्यकार का धंदा नहीं है । सौंदर्य के साथ अगर शील हो तभी वह शोभा देता है , साहित्य के साथ सात्विक तेज हो तभी वह भी कृतार्थ होता है । ''           
           काका कालेलकरजी ने देश विदेश का भ्रमण कर वहां के भूगोल का ही ज्ञान नहीं कराया , अपितु उन प्रदेशों और देशों की समस्याओं , उनका  समाज , उनके रहन सहन , उनकी विशेषताओं इत्यादि का अपनी पुस्तकों में बड़ा सजीव वर्णन किया है । उन्हें हिमालय ने अपनी ओर आकर्षित किया और उसी के आवाहन पर वे हिमालय की यात्रा पर निकल पड़े थे ।
         उन्हें बचपन से ही यात्रा का शौक रहा है । उनके संस्मरणो में यात्रा का विशेष स्थान है । उनकी भाषा और भाव सुन्दर थे की पाठक लेखक के साथ ही उसके कल्पना जगत में पहुंचकर अपने आपको भी भूल जाता था।
           वे सच्चे अर्थों में बुद्धिजीवी थे । लिखना सदा से उनका व्यसन रहा है।  सार्वजनिक कार्य की अधिकता के बावजूद कई ग्रंथों की रचना कर डाली ऐसे महान मनीषी ने 21 अगस्त 1981 में 96 साल की उम्र अपनी आँखे सदा सदा के लिए मूंद ली।