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तेजस्वी व्यक्तित्व -- स्वामी दयानन्द सरस्वती


                             हिंदी साहित्य के अपार भंडार की श्रीवृद्धि करने में कई हिंदी विद्वान मनिषियों ने अपनी कलम के द्वारा नाटक , गद्य तथा कविता आदि विधाओं में रचनाए रचकर हिंदी साहित्य को समृद्ध कर दिया है । इन महान मनिषियों की पंक्ति में हम स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी को उतना ही महत्वपूर्ण मानते है  । वैसे स्वामीजी ने हिंदी साहित्य के भंडार में अपनी रचनाएं नहीं छोड़ी अपितु एक सुधारक , चिंतक और विचारक की भूमिका में उनके तेजस्वी और निर्भीक व्यक्तित्व ने अपने भाषणों और लेखनी से हिंदी को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की है ।
               स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ के मोरवी में सं १८२४ में एक औदीच्य ब्राह्मण परिवार में हुआ । स्वामीजी का वास्तविक नाम मूलशंकर था । उनके पिता श्री . करशनजी लालजी तिवारी तथा माताजी का नाम यशोदाबाई था । उनके पिता मोरवी के प्रतिष्ठित जमींदार थे। 
               पिता की सम्पन्नता के कारण स्वामीजी का बचपन बहुत आराम से बिता । उनके पिता ने अपनी प्रथा के अनुसार स्वामीजी की प्रारंभिक शिक्षा रुद्री और यजुर्वेदी के अध्ययन से आरम्भ कराई। जब स्वामीजी की अवस्था केवल १४ वर्षकी थी , तब उनके पिता ने उन्हें शिवरात्रि का व्रत रखने की आज्ञा दी ।
                    उस दिन उनके परिवार के लोग रात्रि को शिवालय में जागरण करने गए और सब सो गए , परन्तु स्वामीजी जागते रह गए  । उसी समय एक चूहा शिवजी के पिंडी पर चढ़ गया और चढाये  हुए  अक्षत खाने लगा । यही देखकर स्वामीजी के मन से मूर्तिपूजा से श्रद्धा उठ गई वे यहाँ कहकर घर को चले आयें कि जब तक शिवजी के प्रत्यक्ष दर्शन न कर लूंगा तब तक कोई व्रत या नियम नहीं करूँगा  ।
                    उस दौर में हैजा काफी फैला हुआ था , इसी हैजे के कारण स्वामीजी के चाचा एवं उनकी छोटी बहन कि मृत्यु हो गई । दोनों कि मृत्यु के कारण स्वामीजी जीवन मरण के अर्थ पर गंभीरता से विचार करने लगे । इसी सोच के कारण उनके मन में अनगिनत प्रश्न उभरने लगे । वे इन प्रश्नो का हल खोजने अपने माता तथा पिता से सतत प्रश्न पूछने लगे । पुत्र कि ऐसी विचारधारा देखकर उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ मे ही करने का उनके माता -पिता ने निर्णय लिया  ।
                    माता -पिता के इस निर्णय से स्वामीजी अप्रसन्न हुए  , उनके अनुसार विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे सं १८४६ में सत्य की खोज में बहार निकल पड़े ।
           वैसे भी स्वामीजी अपने चाचा को बहुत चाहते थे । चाचा की मौत कि उनके मन को गहरी चोट लगी थी । उस घटना से उनके मन में वैराग्य ने घर कर लिया । स्वामीजी योगाभ्यास के ज्ञाता की खोज में पर्यटन करते हुए कई साधुओं के सत्संग में रहे । परन्तु उन्हें कोई यथार्थ साधु न मिला , जो भी मिले उससे स्वामीजी को संतोष नहीं हुआ ।
यथार्थ साधु की तलाश में भ्रमण करते हुए आखिर सं १८९५ को शिवरात्रि के दिन ही पुनः उनके जीवन जीवन में एक नया मोड़ आया । आज तक जिनकी खोज में वे भटक रहे थे , ऐसे ही ८१ वर्षीय एक विलक्षण विद्वान महापुरुष स्वंय विरजानन्द जी सरस्वती जी कि साक्षात्कार हुआ ।
              स्वामी विरजानन्दजी सरस्वतीजी  से दीक्षा पाकर उन्होंने पाणिनि व्याकरण , पातंजल - योगसूत्र के आलावा वेद - वेदांग को ग्रहण किया । जब स्वामीजी ने अपने गुरु से दीक्षा पूर्ण रूप से ग्रहण की तो ,स्वामी विरजनंदजी ने गुरुदक्षिणा के रूप में स्वामीजी  विद्या को सफल कर दीखाने, परोपकार करने , सत्य शास्त्रों का उद्धार करने , मतान्तरों की अविद्या को मिटाने, वेद प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने , वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करने का वचन माँगा और कहा - यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा होगी  ।
             स्वामी विरजानन्दजी  ने आशीर्वाद देते हुए कहा -- ' ईश्वर उनके पुरषार्थ को सफल करे ,और अपनी अंतिम शिक्षा देते उन्हें बताया कि मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और कृषियों कि निंदा है , कृषीकृत ग्रंथों में नहीं  । जब कि वेद प्रमाण है , इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना । वर्तमान में केवल पांडुरंग शास्त्री उनमे से एक है जो आर्य समाज कि तरह काम कर रही है ।
              स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध करते हुए विधवा विवाह का समर्थन किया । वे ईश्वर को सृष्टि का निमित्य कारण मानते थे  । उनके अनुसार प्रकृति अनादि तथा शास्वत है  । उन्होंने स्त्रियों कि शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन भी चलाया । योगी दयानन्दजी का प्राणायाम पर विशेष बल था । सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों कि भागीदारी के सवीजी प्रबल पक्षधर थे ।
                 स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी कि शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता , देशभक्ति तथा व्यवहारिकता प्रासंगिक एवं युगानुकूल है  । वे समाज सुधारक के अतिरिक्त धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक होने के साथ साथ उनमे प्रचंड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवाद भी था  ।
 अपनी ज्ञान प्राप्ति के पश्चात स्वामीजी ने अनेक स्थानों कि यात्रा कि अपनी हरिद्वार यात्रा के दौरान कुम्भ के अवसर पर उन्होंने ' पाखंड खंडिनी पताका ' फहराई । इसके पश्चात वे कलकत्ता में श्री . बाबू केशवचन्द्र सेन एवं श्री देवेंद्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आये । यहीं से स्वामीजी ने पुरे वस्त्र पहनना तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारम्भ किया । कलकत्ते में ही तत्कालीन वाइसराय को कहा था कि ---
            '' मै चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है । परन्तु भिन्न - भिन्न भाषा , पृथक - पृथक  शिक्षा , अलग - अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है । बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है ।''
             अंग्रेजी सरकार के अनुसार बागी फ़क़ीर स्वामीजी जब हरिद्वार पहुंचे तो वहां एक पहाड़ी पर एकांत स्थान पर अपना डेरा जमाया । उसी दौरान उन्होंने पांच ऐसे व्यक्तीओं से मुलाकात कि , जो आगे चलकर सं १८५७ कि क्रांति के कर्णधार कहलाये उन पांच व्यक्तियों में नाना साहेब , अजीमुल्ला खान , बाला साहब , तात्या टोपे तथा कुंवर सिंह शामिल थे ।
 जबकि स्वामीजी के नेतृत्व में साधुओ ने भी संपूर्ण देश में क्रांति का अलख जगाया था   ।  स्वामीजी स्वयं क्रांतिकारियों के सन्देश एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते ।क्रांतिकारिओं को प्रोत्साहित करते और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी हथियार उठाया करते । सं १८५७ कि क्रांति कि संपूर्ण अवधि में राष्ट्रीय नेता स्वामीजी के संपर्क में थे ।
               प्रारम्भ में अनेक व्यक्तिओं ने स्वामीजी के समाज सुधार कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले तथा उनका विरोध करते रहे । परन्तु कुछ समय पश्चात उन्ही लोगों को स्वामीजी का तर्क समझमें आने लगा और स्वामीजी उनमे भी लोकप्रिय होते गए ।
              अंग्रेजी सरकार ने जनसाधारण में अंग्रजों को लोकप्रिय बनाने कुछ धर्मोपदेशोंको तथा धर्माधिकारियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अंग्रेजी सरकार कि तरफ मिला चुके थे । अंग्रीजी सरकार ने स्वामीजी को भी उन्ही के सामान समझा और ईसाई पादरी के माध्यम से तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड नार्थबुक से स्वामीजी कि मुलाकात करवाई  ।
              सं १८७३ के इस कलकत्ता मुलाकात के दौरान लार्ड नार्थबुक ने अपनी एक बात स्वामीजी के सामने रखी-- '' अपने व्याख्यान के प्रारंभ में आप जो ईश्वर कि प्रार्थना करते है , क्या उसमे आप अंग्रेजी सरकार के कल्याण कि भी प्रार्थना कर सकेंगे ।''
               स्वामीजी को गवर्नर जनरल कि बात सुनकर , अंग्रेजी सरकार कि बुद्धिपर तरस आया , और उन्होंने बड़े निर्भीकता एवं दृढ़ता से गवर्नर को उत्तर दिया ---- 
                         '' मै ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता । मेरी यहाँ स्पष्ट मान्यता है कि राजनितिक स्तर पर मेरे देशवासियों कि निरबांध प्रगति के लिए तथा संसार कि सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यव्रत को सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि मेरे देश वासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो । सर्वशक्तिशली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मै यही प्रार्थना करता हूँ   कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए  से शिग्रतिशीघ्र मुक्त हो । ''
                       स्वामीजी अपने प्रवचनों में प्रायराष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने कि भावना भरते थे । सं १८५५ के हरिद्वार कुम्भ मेले में शामिल होने स्वामीजी ने आबू पर्वत से लेकर हरिद्वार तक पैदल यात्रा कि थी ।
               जब महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी कलकत्तासे मुंबई पधारे और मुंबई के गिरगांव में उन्होंने १० अप्रैल १८७५ को 'आर्य समाज' कि स्थापना की । आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है । संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्या उद्देश्य है । परन्तु आर्य समाज की स्थापना से राष्ट्रिय , सांस्कृतिक और सामाजिक जागरण के साथ हिंदी भाषा और साहित्य को भी सवंर्धित किया ।
                  स्वामीजी की भाषा गुजरती होते हुए भी ,वे संस्कृत के प्रकांड पंडित थे परन्तु उन्होंने हिंदी को जन- जन के लिए उपयुक्त भाषा मानकर जो कुछ लिखा और ऐसी सरल हिंदी में जिसे सभी लोग सहज ही समजते थे ।
           उन्होंने हिंदी में वेदो की टिका की ,उपनिषदों पर टिप्पणी लिखी और अपने सिद्धांतो का संग्रह सृचक ' सत्यार्थ प्रकाश ' भी इसी भाषा में प्रकाशित किया । स्वामीजी ने आर्य समाज के उपनियमो में हिंदी भाषा पढ़ना सब आर्य समाजों के लिए आवश्यक बनाया ।
           स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी के  ' सत्यार्थ प्रकाश ' के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में ' वेदांतिधवंत निवारण ' , 'प्रतिमा पूजन विचार ' , ' संस्कार विधि ' , ' संस्कृत वाक्य प्रबोध ' , ' आत्मचरित्र ' , ' गोकरुणा - निधि ' , 'भव्यार्थ' , ' आर्याभिविनय ' , ' जालंधर की बहस ' , ' पोप लिला ' , ' अष्टाध्याई भाष्य ' , तथा ' कुरान हिंदी 'विशेष  उल्लेखनीय है   ।
               स्वामीजी उन दिनों जोधपुर नरेश महाराज जसवंत सींग के निमंत्रण पर जोधपुर गए हुए थे । उसी दौरान ३०अक्टूबर १८८३को दीवाली के दिन संध्या के समय उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया  ।